Thursday, October 23, 2008

अंतहीन तलाश


नहीं खत्म होती है अंतहीन तलाश
जैसे सुबह का प्रकाश
जैसे रात का अन्धकार
धीरे २ जलती है बत्ती
बुझी २ सी लगती है रात
शान्ति से रेंगती जीन्दगी
तन्हा से हैं जज्बात
भीतर बहूत कुछ नही
बस है जीवन की तलाश
किससे मिलाए खुद को
कोई मुझसा मिलता नहीं
हर चेहरे को टटोले दिल
कोई अक्स भी ईक सा नहीं
कौन दुखी है मेरे दुख से
शाम से बुझा है चीराग
बगल के हर घर में रौशनी है
नहीं खत्म होती है तलाश
जैसे खुद कि है खुद से दुशमनी सी

2 comments:

Momaboutfood said...

इस दुश्मनी से कर के देखो दोस्ती एक बार
यहीं ख़त्म होगी तुम्हारी अंतहीन तलाश!!!

Anonymous said...

मृग मरीचिका का अस्तित्व..ईश्वरप्राप्ति तक रहेगा.. बुत सुन्दर लिखा आपने ..