Friday, October 24, 2008

बाजार


आज बाजार जाने का मन नही करता
कुछ खरीदने की इच्छा नही होती
या शायद इतने पैसे नही की कुछ खरीद सकूँ
कभी बहुत कुछ खरीदती थी मैं
कुछ रंगीन कँचे , गुड्डे गुड्डियों का संसार
आज बिक रहा है सारा ब्रहमाण्ड
ये धरती ये आकाश
ये जल ये पवन
सब कुछ बिक रहा है
बेबसी के मजार पर
भावनाआों के गुब्बारे उड रहें हैं
बेरहम से उचीं कीमत के मीनार से
रिश्तों की जड किसी ने उखाड फेकीं है
कहीं दुर सभी मगन हैं सौदेबाजी में
कुछ खरीदने कि होड में
सब कुछ बेचने कि होड में
कभी जमीन बिकती थी
आज जमीन से जमीर सब गिरवी है

2 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

कभी जमीन बिकती थी
आज जमीन से जमीर सब गिरवी है
...सार्थक लेखन. पर लिखना बंद क्यों कर दिया?

ABHIVYAKTI said...

darti hoon jamane se ........
apne har geet har fasane se
dil jud ke tuta hai mera
kabhi riste kabhi fasane se